विगत वर्षों में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अनुसंधान संस्थानों/केन्द्रों तथा राज्य कृषि विष्वविद्यालयों द्वारा आयोजित किए गए किसान मेलों में किसानों द्वारा शुष्क बागवानी की उन्नत तकनीकीयों से संबंधित बारंबार पूछे गए प्रष्नों तथा वैज्ञानिकों द्वारा उनको दिए गए उत्तरों का सूक्ष्म विवरण निम्न प्रकार से हैः-
Question 1 : गर्म-शुष्क क्षेत्रों में कौन कौन से फल वृक्ष लगाये जा सकते है ?
Answer here, गर्म-शुष्क क्षेत्रामें मे बेर, आंवला, अनार, बेलपत्र, खजूर, फालसा, लसोड़ा, किन्नो, केर, खेजड़ी, आदि फल वृक्ष आशानी से उगाये जा सकते है।
Question 2 : गर्म-शुष्क क्षेत्रो में कम पानी के साथ अधिक उत्पादन तथा लाभ कमाने के लिए बेर की कौन-कौन सी किस्म उपयुक्त रहती है ? और उनके पौधे कब और कहाँ मिल सकते है ?
Answer here, गर्म-शुष्क क्षेत्रो मे कम पानी के साथ अधिक उत्पादन व लाभ कमाने के लिए बेर की गोला, सेब, उमरान, थारसेविका, थारभूभराज, गोमाकीर्ति, कैथली, मुंडिया, आदि उन्नत किस्मे लगाकर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है। इसके उन्नत पौधे जूलाई-अगस्त के महिने में केन्दीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर (राजस्थान), राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर तथा काजरी, जोधपुर या अन्य किसी सरकारी व प्रमाणित नर्सरी से उचित दाम पर प्राप्त किये जा सकते है।
Question 3 : अगर हम स्वयं बेर की उन्नत किस्म तैयार करना चाहे तो किस प्रकार से तैयार कर सकते हैं ?
Answer here, बेर के पौधे बीज तथा कायिक विधियों द्वारा तैयार किये जा सकते हैं। बीज द्वारा तैयार पौधे प्रायः मूलवृन्त के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। व्यवसायिक बाग लगाने के लिए बेर के उन्नत किस्म के पौधे कायिक विधि से तैयार किये जाते है। कायिक विधि में ये पौधे मुख्यतया कलिकायन (पैच, टी व आई बडिंग) विधि से तैयार किये जाते हैं। देषी झरबेरी और बोरड़ी के मूलवृंतों पर भी उन्नत किस्मों के पैबन्द चढ़ाकर (बडिंग) उत्तम गुण वाले पौधे तैयार किये जा सकते हैं। उन्नत किस्म के पौधे तैयार करने के लिए सबसे पहले मूलवृंत तैयार किया जाता है। मूलवृंत तैयार करने के लिए मार्च-अप्रैल में देषी बोरड़ी (बेर) के बीज की बुआई करते हैं। बेर की साबुत गुठली बोने से अंकुरण लगभग एक महीने बाद होता है, अतः गुठली को तोड़कर उसमें से गिरी (बीज) निकाल करके उसकी बुआई पाॅलीथीन की नलियों (ट्यूब्स) में करते हैं। पाॅलीथीन की 25 से.मी. (10 इंच) लम्बी; 10 से.मी. (4 इंच) व्यास व 300 गेज मोटाई की ट्यूब्स लेते हैं और उनमें सड़ी हुई गोबर की खाद, चिकनी मिट्टी तथा बालू रेत के बराबर अनुपात (1ः1ः1) के मिश्रण से भर देते हैं। फिर इन पाॅलीथीन की नलियों को पौधशाला की क्यारी में सीधा जमाकर रख देते हैं। उत्तरी भारत में बीज की बुआई के लिये अप्रैल का समय उपयुक्त होता है तथा जुलाई में मूलवृंत कलिकायन (बडिंग) योग्य तैयार हो जाता है। बीज की बुआई 2 सेमी. की गहराई पर करते हैं तथा प्रतिदिन फव्वारे से हल्की सिंचाई करने पर एक सप्ताह के अन्दर अच्छा अंकुरण हो जाता है। बीज अंकुरण के पश्चात् तीन-चार दिन के अन्तराल पर सिंचाई करने पर पौध वृद्धि अच्छी होती है। इस तरह लगभग तीन महीने (90 दिन) बाद मूलवृंत के पौधे, कलिकायन (पैबंद चढ़ाने) के लिये तैयार हो जाते हैं। पैबंद चढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त समय जुलाई होता है परन्तु देश के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु के आधार पर जून से सितम्बर माह तक बडिंग (पैम) किया जा सकता है। बडिंग के 30-45 दिनों के पश्चात् पौधे बगीचे में रोपने योग्य तैयार हो जाते हैं। स्वस्थानिक (इन सीटू) विधि में मूलवृंत सीधे बाग में रेखांकन के अनुसार लगाये जाते हैं जिन पर अगले वर्ष पैबंद चढ़ा देते हैं।
Question 4 : बेर की उन्नत किस्म लगानी हो तो कब और कैसे लगाये और किन-किन बातों का ध्यान रखे ?
Answer here, शुष्क क्षेत्र में बेर के पौध लगाने का सबसे उपयुक्त समय वर्षा ऋतु (जुलाई-अगस्त) होती है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो बसंग ऋतु (फरवरी-मार्च) में भी पौध रोपण किया जा सकता है। चूंकि शुष्क क्षेत्र में सिंचाई के लिए पानी सीमित होता है, अतः वर्षा के जल का समुचित उपयोग करके बारानी क्षेत्रों में बेर की पौध-स्थापना सुनिश्चित की जा सकती है। रेखांकन करने के बाद 6 ग 6 या 8 ग 8 मीटर की दूरी पर 60 ग 60 ग 60 सेमी. आकार के गड्ढे खोद कर वर्षा ऋतु के पूर्व ही तैयार कर लेते है। रोपाई के एक माह पहले इन गड्ढों में 2 टोकरी सड़ी हुई गोबर की खाद व 50 ग्राम मिथाइल पैराथियान (5ः) चूर्ण को मिट्टी में मिलाकर अच्छी तरह भर देते हैं। तत्पश्चात् उनमें सिंचाई की जाती है ताकि मिट्टी अच्छी तरह से बैठ जायें। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पौध रोपण के लिये 6 मीटर की दूरी उपयुक्त पायी गयी है जबकि सिंचित क्षेत्रों या 500 मिमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पौधों की दूरी 8 ग 8 मीटर रखी जाती है। बलुई मिट्टी में गड्ढे तैयार करते समय बेन्टोनाइट या चिकनी मिट्टी की परत बिछा देनी चाहिए तांकि पानी छन कर मिट्टी में ज्यादा गइराई तक न जा सके और पौधे को लम्बे समय तक उचित नमी उपलब्ध होती रहे और पौधों का सफल स्थापन्न हो सके। इसी प्रकार, कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पौध रोपण के पश्चात उसके आस पास ढलान (5 प्रतिशत) बनाकर वर्षा के जल को एकत्र किया जाना चाहिए जिससे पौधों की स्थापना अधिक मजबूती हो सके। अच्छी तरह से जमे हुए गड्ढों में ही पौधा रोपण करना चाहिए तांकि उनकी स्थापना ठीक से हो जाये। रोपण के पश्चात् हल्की सिंचाई अत्यंत आवश्यक होती है। पौधा पूर्णरूप से स्थापित होने तक समय-समय पर सिंचाई करते रहना बहुत जरूरी है।
Question 5 : बेर के पौधो की सिंचाई कब-कब और कैसे करनी चाहिए और किन-किन बातो का ध्यान रखना चाहिए ?
Answer here, बेर के नये पौधे (बाग) स्थापित करने के लिए प्रथम वर्ष में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है। एक बार जब पौधे अच्छी तरह से जम जायें तब असिंचित दशा में भी बेर के पौधों से अच्छी उपज मिल सकती है। सूखा पड़ने की स्थिति में भी अन्य फलदार फसलों की तुलना में बेर से अच्छा उत्पादन मिलता है। बेर में अच्छी गुणवत्ता व अधिक फल उत्पादन के लिये फूल आने से पहले व फल बनने की अवस्था पर 15-20 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार सिंचाई करना लाभप्रद होता है। मार्च-अप्रेल में बेर के पौधों को पानी देना हानिकारक होता है क्योंकि इससे फलों की परिपक्वता में देरी तथा उनके फटने व रोग लगने की समस्या हो जाती है।
कम वर्षा वाले क्षेत्रों में, वर्षा जल के समुचित उपयोग के लिये पौधों की कतारों के बीच वाले क्षेत्र से पौधों की तरफ (5 प्रतिशत) ढलान बनाने से वर्षा जल को पौधों के पास एकत्र किया जाना चाहिए। बेर के गड़ढ़ों के ऊपर काली पाॅलीथीन, गोबर की खाद या अन्य अवषेषों की पलवार बिछानी चाहिए तांकि मृदा में नमी संरक्षित हो जाये तथा पौधे की बढ़वार के साथ-साथ फल उत्पादन भी बढ़ जाये। कुछ रसायनों जैसे पावर आयल (1.5 प्रतिशत) और केओलीन (7.5 प्रतिशत) के पर्णीय छिड़काव करके वाष्पोत्सर्जन से होने वाले नमी के हृास को रोककर भी फलोत्पादन को बढ़या जा सकता है।
Question 6 : बेर के पौधे की अच्छी वृद्धि एवं अधिक उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरको को उपयोग कैसे करे ?
Answer here, बेर के अच्छे उत्पादन के लिए पौधे रोपण के बाद प्रथम वर्ष में 10-15 किग्रा सड़ी हुई गोबर की खाद एवं 100 ग्राम नत्रजन, 50 ग्राम फाॅस्फोरस तथा 50 ग्राम पोटाश प्रत्येक पौधे को देना चाहिए। बेर में खाद एवं रासायनिक उर्वरकों का प्रत्येक वर्ष प्रयोग करके फल उत्पादन एवं गुणवता में सुधार लाया जा सकता है। खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग वर्षा ऋतु में करना उपयुक्त होता है परन्तु नत्रजन को दो भागों में बांटकर पौध वृद्धि एवं फलन दोनों अवस्था में देना उचित होता है। खाद एवं उवर्रकों की सही मात्रा का निर्धारण मिट्टी के परीक्षण के पश्चात् ही करना ठीक रहता है। दूसरे वर्ष से खाद एवं उर्वरक की उपर्युक्त मात्रा को प्रति वर्ष ऐसे अनुपात मे बढ़ाकर देना चाहिए जिससे पांचवे वर्ष में प्रत्येक पौधे को 50-75 किग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 500 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम फाॅस्फोरस एवं 250 ग्राम पोटाश उपलब्ध हो जाये।
Question 7 : क्या बेर के पौधे की हर वर्ष कंटाई-छंटाई करना जरूरी है। यदि हाँ, तो कंटाई-छंटाई की विधि एवं इसमे ध्यान रखने वाली प्रमुख बाते कौन कौन सी है ?
Answer here, बेर के पौधों की कंटाई-छंटाई करना अत्यन्त आवश्यक है। प्रारम्भ के दो-तीन वर्षो में पौधों का ढंाचा मजबूत करने के लिये उनकी कांट-छांट करना बहुत जरूरी होता है। बेर के पौधों में झाड़ीनुमा फेलने की प्रवृत्ति होती है अतः उन्हें छंगाई (ट्रेनिंग) करके पेड़नुमा बनाया जाता है। ढांचा मजबूत बनाने के लिये यह आवश्यक होता है कि एक ही जगह पर एक से अधिक शाखायें न रखी जायें। एक सीधे बढ़ने वाले मुख्य तने पर भूमि की सतह से 30-40 सेमी. ऊँचाई पर समान दूरी पर एवं चारों दिशाओं में फेलने वाली 3 या 4 शाखाओं को बढ़ने देना चाहिए। पैबन्द लगे स्थान के नीचे मूलवृंत वाले हिस्से से तथा अन्य अवांछनीय स्थान से निकलने वाली टहनियों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। पौधों की काट-छांट अप्रैल-मई में की जानी चाहिए। दूसरे वर्ष इन मुख्य शाखाओं पर 3-4 द्वितीय शाखाओं को छोड़कर कटाई-छंटाई करते हैं जिनसे तृतीय शाखाएं निकलती हैं। काट-छांट करते समय ऊपर की ओर सीधे बढ़ने वाली शाखाओं का छोड़ देते हैं जिससे मजबूत ढांचे के साथ-साथ पेड़ का फैलाव भी अच्छा हो।
बेर के पौधों में निकलने वाले नई टहनियों पर फूल अच्छे आते हैं, अतः इसमें हर साल कटाइ-छंटाई (प्रूनिंग) करना आवश्यक होता है। यदि पौधों की नियमित कटाई-छंटाई न की जाय तो फलों का आकार छोटा एवं गुणवत्ता खराब हो जाती है। शुष्क एवं गर्म मौसम में जब पौधों की अधिकांश पत्तियां झड़ चुकी हों और पेड़ सुषुप्तावस्था में हों तब बेर के पौधे की कटाई-छंटाई करनी चाहिए। शुष्क क्षेत्र में कटाई-छंटाई का उपयुक्त समय मई (वैशाख-ज्येष्ठ) का महीना होता है। कटाई-छंटाई करते समय सामान्यतः पिछले वर्ष की शाखाओं का 50 प्रतिशत भाग काट देते हैं। तृतीय शाखाओं को पूर्ण रूप से एवं द्वितीय शाखाओं की 15-20 कलियां काट देने पर मजबूत एवं ओजस्वी शाखाएं निकलती हैं। बीमारियों के प्रकोप से बचाव के लिये शाखाओं के कटे हुए सिरों पर फफूंदनाशी (ब्लू कापर या ब्लाइटाक्स-50) का लेप कर देना चाहिए। काट-छांट के लिये तेजधार वाले औजार का प्रयोग करना चाहिए जिससे शाखा क्षतिग्रस्त न हो।
Question 8 : बेर के फलो मे कीड़े बहुत पड़ते है जिससे फल खराब हो जाते हैं तथा उन्हें कोई नहीं लेता। इसके नियन्त्रण के लिए क्या करे ?
Answer here, बेर के फलो मे कीड़ा पड़ना एक बहुत बडी समस्या है। ये एक प्रकार की फलमक्खी की वजह से पड़ते है। फलो में कीडे पड़ने से बचाने के लिए जब बेर के पेड़ों मे अधिकांशतः (75 प्रतिशत) फूल आ गये हों और फल बनने शुरू हो गये हों, उस समय मोनोक्रोटोफास नामक कीटनाशक दवा का 0.03 प्रतिशत घोल का पहला छिड़काव करना चाहिए। इसके पश्चात् 10-15 दिन के अन्तराल पर 0.05 प्रतिशत फेनथियान का दूसरा छिड़काव तथा इतने ही समयान्तराल पर 0.1 प्रतिशत कार्बेरिल का तीसरा छिड़काव करके फलमक्खी से होने वाले नुकसान को बचाया जा सकता है। इसी दवा के प्रयोग से फलछेदक कीट को भी नियंत्रित किया जा सकता है। जमीन पर गिरे हुए कीट ग्रसित फलों को एकत्रित करके नष्ट करने से एवं पौधों के नीचे गर्मी के मौसम में गहरी गुड़ाई करके छोड़ने से कीट के प्रकोप को कम किया जा सकता है। फलो में कीडे़ पड़ने की रोकथाम के लिए बेर के बगीचे के आस-पास के क्षेत्र से जंगली बेर की झांड़ियों को काट कर साफ रखे, प्रभावित फलों को एकत्रित करके नष्ट करदें तथा मई-जून के माह मे मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की जूताई कर दे।
Question 9 : क्या गर्म शुष्क क्षेत्रो मे आवंले की खेती की जा सकती है ?
Answer here, हाँ, आंवले की बागवानी गर्म एवं शुष्क जलवायु क्षेत्रो में सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसकी खेती के लिऐ सिंचाई की व्यवस्था जरूरी है। पर्याप्त सिंचाई की व्यवस्था एवं बलुई दोमट मिट्टी वाले क्षेत्रो मे आंवला की खेती काफी लाभप्रद हो सकती है।
Question 10 : आंवले की वे कौन कौनसी उन्नत किस्म है जो गर्म-शुष्क जलवायु एवं बलूई मिट्टी वाले क्षेत्रो मे आसानी से उगाई जा सकती है ?
Answer here, आंवले की प्रमुख किस्मे जो कम पानी के साथ गर्म-शुष्क जलवायु व बलूई दोमट मिट्टी मे उगाई जा सकती है वे है - नरेन्द्र आंवला-7, नरेन्द्र आंवला-6, कृष्णा, चकइया, कंचन आदि।
Question 11 : आंवले के उन्नत पौधे किस समय और कैसे तैयार किये जाते है ?
Answer here, आंवले के उन्नत किस्म के पौधे कलिकायन विधि से पेम चढाकर जूलाई-अगस्त के महिने में तैयार किये जाते है। इस विधि मे सबसे पहले देशी आंवले के बीज बोकर बीजू पौधा (मूलव्रन्त) तैयार किये जाते है। मूलव्रन्त तैयार करने के लिए भूमि की सतह पर 15-20 सेमी. ऊंची एवं 3ग1 मीटर लम्बी क्यारी बनाते हैं तथा उनमें जुलाई-अगस्त में बीज बोते हैं। बुआई से पहले बीज को बाविस्टीन फफूंदनाशी दवा (2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज) से उपचारित कर लेते हैं। बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोकर बोने पर अंकुरण जल्दी होता है। अंकुरित पौधों को लगभग एक माह बाद समतल क्यारियों में 20 ग 20 सेमी. दूरी पर लगा देते हैं जिससे कि इन पर अगले वर्ष जुलाई में कलिकायन किया जा सके। पौधशाला में रोग से बचाव के लिए डायथेन एम-45 (0.3 प्रतिशत घोल) का 10-15 दिन के अंतराल से छिड़काव करना चाहिए।
व्यवस्था एवं सार सम्भाल की द्रष्टि से पालीथीन की थैलियों (नालियों) में मूलवृंत तैयार करना अधिक सुविधाजनक एवं सफल रहता है। पालीथीन की नलियों (30 ग 12 सेमी.) में खाद, चिकनी मिट्टी व बालू बराबर अनुपात में भर कर भी मूलवृन्त तैयार किए जाते हैं। इन नलियों (थैलियों) को लगभग 30 सेमी. गहरी क्यारी में सीधी रखकर मिश्रण भर देते हैं तथा इनमें फरवरी-मार्च के माह में बीज बो देते हैं जो कि 5-7 दिन में अंकुरित हो जाते हैं। 8-9 माह में पौधे चश्मा चढ़ाने लायक तैयार हो जाते हैं। इन देषी आंवले के पौधों पर कलिकायन जुलाई से सितम्बर माह तक किया जा सकता है। कलिकायन करते समय मूलवृन्त पेंसिल जितनी मोटाई का होना चाहिए। विरूपित छल्ला (मोडिफाइड रिंग) तथा पैच (चिप्पी) कलिकायन एवं साफ्टवुड ग्राफ्टिंग विधि द्वारा भी आंवले के कलमी पौधे तैयार किये जा सकते हैं। पुराने बीजू पेड़ों को शिखर रोपण (टाप वर्किग) करके कलमी पेड़ों में परिवर्तित किया जा सकता हैं।
Question 12 : शुष्क क्षेत्रों में आंवले का बगीचा लगाते समय किन किन बातो का ध्यान रखना चाहिए और इसका बाग कैसे तैयार कर सकते है ?
Answer here, आंवले का बाग लगाने से पूर्व खेत के चारों ओर वायुरोधक पेड़ों की कतार लगाने से शुष्क क्षेत्रों में आंवले का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है। इसके लिए शीशम, गूदा, नीम, अरडू, देषी बोरडी आदि की एक या दो पंक्तियां खेत के चारों ओर लगा देनी चाहिए इससे आंवले के नये पौधों की स्थापना एवं बढ़वार में भी मदद मिलती है। शुरू के वर्षो में जब मुख्य वायुरोधक पौधे छोटे होते है तब वायु के तीव्र वेग को रोकने के लिए तेजी से बढ़ने वाले पौधे जैसे-ढैंचा, अरण्डी आदि की एक या दो कतार लगाकर आंवले के पौधों को तेज व गर्म हवा से बचा सकते हैं तथा सर्दियों में पाले से होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं। बाग में कलमी पौधे लगाने के लिए उचित रेखांकन आवश्यक है जिसके लिए 8ग8 मीटर की दूरी पर निशान लगाना चाहिए। पौध रोपण के लिए वर्षा ऋतु से पूर्व (मई-जून)1ग1 मीटर आकार के खड्डे तैयार करके उनमें खेत की ऊपरी सतह की अच्छी मिट्टी तथा सड़ी हुई गोबर की खाद (1ः1 अनुपात) के मिश्रण से भर देते हैं। दीमक या कीड़ों की रोकथाम के लिए मिट्टी के मिश्रण में 50 ग्राम मिथाइल पैराथियान (5ः) प्रति खड्डे में मिला देना चाहिए। खड्डे को जमीन की सतह से 10 सेमी. ऊपर तक भर कर सिंचाई करनी चाहिए जिससे कि खड्डों में मिश्रण की मिट्टी दबकर स्थिर हो जावे। आंवले के पौध रोपण के लिए जुलाई-अगस्त का समय सबसे उपयुक्त होता है। शुष्क क्षेत्र में जहां सिंचाई का समुचित प्रबंध हो, फरवरी तथा अक्टूबर में भी पौध रोपण किया जा सकता है। आंवले में स्वयंबंधता की समस्या होती है, अतः बाग लगाते समय चुनी हुई मनपसन्द की आंवले की अच्छी किस्म के साथ-साथ लगभग 10 प्रतिषत (15 पौधे/है.) के हिसाब से उसी खेत में दूसरी किस्म के पौधे भी लगाना बहुत जरूरी है। तांकि परागकण की क्रिया अच्छे हो और पैदावार अच्छी हो।
Question 13 : आंवले के अच्छे उत्पादन के लिए कौन कौन से खाद एवं उर्वरको का प्रयोग करना चाहिए तथा उन्हे कैसे और कब देना उचित रहता है ?
Answer here, भूमि की उर्वरता को ध्यान में रखकर पौधे की आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करके आंवलों के पेड़ों से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि प्रति वर्ष खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के बाद ही निर्धारित की जाती है फिर भी सामान्यता प्रथम वर्ष में 10 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 200 ग्राम यूरिया, 125 ग्राम डाई अमोनियम फास्फेड (डी.ए.पी.) तथा 125 ग्राम म्यूरेड आफ पोटाश प्रत्येक पेड़ को देना चाहिए। यही मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ाते रहते हैं एवं 10 वर्ष पश्चात् निर्धारित की गई मात्रा (100 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 2 कि.ग्रा. यूरिया, 1.25 कि.ग्रा. डी.ए.पी. तथा 1.25 कि.ग्रा. म्यूरेट आफ पोटाश प्रति पौधा) प्रति वर्ष देते रहते है। जस्ता की कमी के लक्षण दिखाई पड़ने पर 250-500 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधे के हिसाब से भूमि में देना चाहिए। उतकक्षय व्याधि का प्रकोप होने पर फलों का गूदा काला पड़ जाता है। इससे बचाव के लिए फल विकास के समय 0.06 प्रतिशत बोरेक्स के घोल का 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।
आंवले के बागीचे में जनवरी-फरवरी तथा जून-जुलाई में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। सड़ी हुई गोबर की खाद और डी.ए.पी. की पूरी मात्रा तथा यूरिया व म्यूरेट आफ पोटाश की आधी मात्रा जनवरी-फरवरी में देने से वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है। उर्वरकों की शेष मात्रा वर्षा ऋतु में देने से फलों का विकास अच्छा होता है।
Question 14 : पश्चिमी राजस्थान जैसी गर्म एवं शुष्क जलवायु मे अनार की कौन कौन सी किस्म आसानी से उगाई जा सकती है और अच्छा उत्पादन दे सकती है ?
Answer here, पश्चिमी राजस्थान की गर्म एवं शुष्क जलवायु मे अनार की गणेश, जालोर सीड़लेस तथा ढोलका किस्म आसानी से उगाई जा सकती है और इनसे अच्छा लाभ कमाया जा सकता है।
Question 15 : नर्सरी मे अनार के पौधे कैसे और कब तैयार किये जा सकते है ?
Answer here, अनार के पौधे बीज, कलम, गूटी एवं दाब लगाकर तैयार किये जा सकते हैं परन्तु कलम (कटिंग) और गूटी विधियाँ ही अधिक प्रचलित हैं। पौधे तैयार करने के लिए एक वर्ष पुरानी शाखाओं से प्राप्त 9-10 इंच लम्बी कलमों को किसी पादप हार्मोन (सेरेडेक्स-बी, रुटोन, रुटेक्स, इत्यादि) से उपचारित करके पौधशाला में फरवरी-मार्च अथवा जून-जूलाई (वर्षा ऋतु) में लगाते हैं। हार्मोन के प्रयोग से कलमों में जडें़ जल्दी फूटती हैं तथा लगभग 8-10 माह में रोपने लायक पौधे तैयार हो जाते हैं। गूटी बाँधकर भी पौधे तैयार किये जाते हैं। बीजू पौधों की तुलना में कलमी पौधे जल्दी फल देने लगते हैं। कलमों को बालूरेत, चिकनी मिट्टी व खाद के बराबर मात्रा के मिश्रण से भरी हुई पोलिथीन की थेलियों (25ग10 से.मी. आकार) में अथवा अच्छी तरह से तैयार की गई क्यारी में लगाते हैं। समय-समय पर, नर्सरी में पौधों की हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।
Question 16 : अनार के पौधे कितनी-कितनी दूरी पर, कब और कैसे लगाने चाहिए ?
Answer here, अनार के पौधों को लगाने का सबसे उत्तम समय वर्षा ऋतु (जुलाई-अगस्त) होती है। वैसे पर्याप्त सिंचाई सुविधा होने पर अनार के पौधे वसंत ऋतु (फरवरी) में भी लगाये जा सकते हैं। अनार के पौधों को वर्गाकार या आयताकार विधि से 5ग5 या 6ग4 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए। पौधे लगाने के लिए 60 ग 60 ग 60 से.मी. आकार के गड्ढे़ वर्षा पूर्व ही तैयार करने चाहिए। ऊपर की उपजाऊ मिट्टी में सड़ी हुई 10 कि.ग्रा. गोबर या मींगनी की खाद तथा 50 ग्राम मिथाइल पैराथियान कीटनाशक चूर्ण मिलाकर इनको भर देना चाहिए जिससे कि ये वर्षा ऋतु में पौध रोपण के लिए तैयार रहें। लगाने के पश्चात् पौधों के चारों ओर मिट्टी को अच्छी तरह दबाकर हल्की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।
Question 17 : क्या पश्चिमी राजस्थान की जलवायु व मिट्टी खजूर की खेती के लिए उपयुक्त है ?
Answer here, बिल्कुल है, पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाडमेर, जोधपुर व अन्य कुछ हिस्सो की मिट्टी एवं गर्म-शुष्क मौसम खजूर उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इस क्षेत्र मे खजूर उत्पादन की विपुल सम्भावनाये है।
Question 18 : क्या खजूर के पौधे को क्षारिय भूमी पर भी उगाकर उत्पादन लिया जा सकता है ?
Answer here, बिल्कुल, दूसरे फलवृक्षो की तुलना मे खजूर के व्रक्ष मे क्षारियता को सहन करने की शक्ति अधिक होती है। खजूर का व्रक्ष 3-4 प्रतिशत क्षारियता को सहन कर सकता है। जबकि जड़ो की सामान्य कार्य शक्ति के लिए एक प्रतिशत से अधिक क्षारियता नहीं होनी चाहिए। खजूर 8-10 पी.एच. वाली मिट्टी मे भी आसानी से उगाया जा सकता है।
Question 19 : अगर पश्चिम राजस्थान की गर्म-शुष्क जलवायु मे खजूर के पौधे लगाना चाहे तो हमे खजूर की कौन-कौन सी उन्नत किस्म के पौधे लगाने चाहिए ?
Answer here, वैसे तो खजूर की बहुतसारी व्यावसायिक किस्मे है परन्तु पश्चिमी राजस्थान के वातावरण मे हलावी, खदरावी, खलास, बरही, जाहिदी, खुनेजी, आदि किस्मो को उगाकर अच्छा धन लाभ कमाया जा सकता है।
Question 20 : हमारे पास मे कुछ खजूर के पौधे है लेकिन उनमे फल नहीं आते है, क्या कारण है ? उनमे फल आजाये, इसके लिए कुछ उपाय बताये ?
Answer here, खजूर के नर व मादा पौधे अलग अलग होते है। नर पौधे पर केवल नर पुष्प तथा मादा पौधे पर केवल मादा पुष्प ही आते है। आपके खेत पर लगे खजूर के पौधो की यह जाँच करवाना अतिआवश्यक है कि वे नर ही नर या मादा ही मादा के पौधे तो नहीं है। यदि वे केवल नर ही नर या मादा ही मादा के पौधे है तो उनमे फल नहीं लगेगा। क्योकि निषेचन की क्रिया तथा फल आने के लिए नर व मादा दोनो ही पौधे व फूलो (पुंकेसर व स्त्रीकेसर) को होना बहुत जरूरी है। यदि जांच करने पर पता लगता है कि आपके खेत पर लगे खजूर के पौधे मादा है तो परागकण तथा निशेचन की क्रिया के लिए हमे मादा फुलो (स्त्रीकेसर) तक परागकणो (पंकेसरो) को पहुंचाने की व्यवस्था करनी होगी। यह विधित है कि खजूर में नर एवं मादा पुष्पक्रम अलग अलग पेड़ों पर होते हैं तथा हवा द्वारा परागकण नर पेड़ों से मादा पेड़ों तक ले जाने से परागण संपन्न होता है। प्राकृतिक रूप से परागण हेतु खेत में आधे नर एवं आधे मादा पेड़ होने चाहिएं, लेकिन इससे प्रति हैक्टर उपज काफी कम हो जाती है। अतः कृत्रिम परागण किया जाता है, जिसके लिए खेत में केवल 10 प्रतिशत नर पेड़ पर्याप्त होते हैं। कृत्रिम परागण या तो परागकणों को रूई के फाहों की सहायता से मादा पुष्पक्रमों पर पुष्पों के खिलने के तुरन्त पश्चात् प्रातःकाल छिड़ककर अथवा नर पुष्पक्रमों की ताजी खुली हुई कुछ लड़ियों को खिले हुए मादा पुष्पक्रमों के साथ बांधकर किया जाता है। फाहों द्वारा परागण प्रक्रिया हर मादा पुष्पक्रम में कम से कम 2-3 दिन तक लगातार करनी चाहिए। नर पुष्प क्रम की लड़ियां खुले मादा पुष्पक्रम के मध्य में उलटी करके हल्के से बांध दी जाती हैं जिससे उनमें से परागकण शनैःशनैः गिरते रहें। इस प्रकार से मादा पेड के फुलो पर परागकण की क्रिया पुरी करा कर फल न आने की समस्या को दूर किया जा सकता है।
Question 21 : क्या गर्म-शुष्क क्षेत्रो मे उगाने के लिए मतिरे की भी कोई उन्नत किस्म है। अगर है तो उनकी बुवाई कब और केसे करनी चाहिए ?
Answer here, गर्म शुष्क क्षेत्रो मे अच्छे उत्पादन के लिए केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर (राजस्थान) ने हाल ही मे मतिरे की तीन उन्नत किस्मे यथा ए.एच.डब्लू-65, ए.एच.डब्लू-19 तथा थारमाणक नामक उन्नत किस्मे विकसित की है जो गर्म श्ुाष्क क्षेत्रो मे बहुत ही अच्छा उत्पादन देती है। इन किस्मो को वर्ष मे दो बार यथा जूलाई-अगस्त तथा फरवारी-मार्च के महिने मे उगाकर अच्छा धनलाभ कमाया जा सकता है। ये शुष्क क्षेत्रो मे नाली विधि, कुण्ड विधि या बाड़ी विधि से बोई जा सकती है। इनकी बुवाई की विधि एवं ऋतु के अनुसार 4-6 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त रहता है। बीजो को 2 ग्राम बाविस्टन या थाईरम या केप्टान प्रति किलोग्राम के हिसाब से उपचारित करके ही बोना चाहिए।
Question 22 : मतिरे की फसल (बेल) पर छाछ्या रोग (पाउडरी मिलड्यू) का प्रकोप बहुत ज्यादा होता है। इसके नियन्त्रण के लिए क्या करे।
Answer here, मतीरे की फसल (बेल) पर छाछ्या रोग के नियन्त्रण के लिए ध्यान रखे कि बीज को उचित कवकनाशी जैसे बाविस्टिन या थाइरम या केप्टान से उपचारित करके ही बुवाई करे। खेत में स्वच्छता रखना भी इस रोग से बचाव का प्रमुख उपाय है। इसके लिए रोग ग्रस्त फसल के अवशेषों को इक्ट्ठा करके खेत में ही जला देना चाहिए।
छाछ्या रोग केरेथेन एस.एल. एक मिलीलीटर दवा प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करने से भी नियंत्रित हो जाता है। इस दवा के उपलब्ध न होने पर एक ग्राम बेनलेट या अन्य कोई कवकनाशी दवा प्रति लीटर पानी की दर से प्रयोग किया जा सकता है।
Question 23 : क्या काचरी (छोटा काचर) की भी उन्नत किस्मे उपलब्ध है। अगर हाँ, तो उनका बीज कब और कहाँ से मिल सकता हे ?
Answer here, हाँ, काचरी (छोटे काचर) की भी दो उन्नत किस्मे उपलब्ध है जो गर्म शुष्क क्षेत्रो में आश्चर्यजनक उत्पादन देती है। इन उन्नत किस्मो के नाम है यथा: ए.एच.के.-119 एवं ए.एच.के.-200 जो हाल ही मे केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर (राजस्थान) द्वारा विकसित की गई है। इन किस्मो का बीज उपरोक्त संस्थान मे ही उचित दाम पर किसानो को उपलब्ध कराया जाता है।
Question 24 : काचरी की उन्नत किस्मो से अच्छा लाभ कमाने के लिए उन्हे कब और कैसे बोना चाहिए ?
Answer here, काचरी की उन्नत किस्म ए.एच.के.-119 तथा ए.एच.के.-200 को वर्ष में दो बार बोई जा सकती है (अर्थात् ग्रीष्मकाल तथा वर्षाकाल में) काचरी की ग्रीष्मकालीन फसल हेतु बुवाई फरवरी से मार्च तथा वर्षा कालीन फसल का बीज जून से जुलाई में बोया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 2.0 से 2.5 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। बीज को बुवाई से पूर्व उपचारित करने के लिए बेवेस्टिन या केप्टान 2 ग्राम दवा प्रति किलो बीज में पर्याप्त रहती है। काचरी की बुवाई नालियों, कुण्डों या मिश्रित फसल के रूप में भी की जा सकती है। परन्तु ग्रीष्मकालीन फसल हेतु नाली विधि तथा वर्षा कालीन फसल हेतु नाली या कुण्ड विधि उपयुक्त रहती है। दो नालियों अथवा कुण्डों के बीच में 1.5 मीटर की दूरी रखी जाती है तथा पौधे से पौधे की दूरी 60 सेमी. रखते है। कुण्ड विधि से बुवाई के लिए प्रत्येक स्थान पर थांवले बनाकर उनमें दो-तीन बीज बो देते है। फिर छंटनी करके प्रत्येक थांवले में एक-दो ही पौधे रखते है और आवष्यकतानुसार पानी देते रहते है। आमतौर पर कृषक, काचरी की फसल हेतु खाद एवं उर्वरक का प्रयोग नहीं करते, परन्तु अधिक उत्पादन हेतु खेत की तैयारी के समय 200-250 क्विंटल देशी खाद प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल में 5-6 सिंचाई पर्याप्त रहती है जबकि वर्षाकालीन फसल में बरसात सही अन्तराल पर होती रहे तो सिंचाई की आवश्यकता नही होती। अगर सूखा ज्यादा समय तक रहे तो एक दो जीवनदायी सिंचाई करने से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। समय समय पर निराई गुड़ाई करके खरपतवार निकालते रहना चाहिए। काचरी के फलों को कीडों से बचाने के लिए एक मिलीलीटर रोगोर या मेलाथियान या एण्डोसल्फान प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 400-500 लीटर घोल प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करें। छिड़काव बुवाई के 30 व 45 दिन बाद जब फूल आना प्रारंभ हों तब करें। आमतौर पर फल बुवाई के 65-70 दिन बाद तोड़ना प्रारंभ करके 120 दिन तक चलता है। तुड़ाई दो दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए।
Question 25 : गर्म एवं शुष्क क्षेत्रो मे अच्छे उत्पादन के लिए काकडियाँ (स्नेपमेलन) की कौन कौन सी उन्नत किस्मे लगानी चाहिए ?
Answer here, पश्चिमी राजस्थान जैसी गर्म एवं शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रो मे काकडियाँ (स्नेपमेलन) के अच्छे उत्पादन एवं धनलाभ कमाने के लिए हाल ही मे केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर (राजस्थान) ने काकडियाँ की दो उन्नत किस्मो यथा ए.एच.एस.-10 और ए.एच.एस.-82 विकसित की जो किसानो को भरपूर लाभ दे रही है।
Question 26 : क्या काकडियाँ के खेती मे भी खाद एवं उर्वरको का प्रयोग करना चाहिए ?
Answer here, प्रायः किसान काकडियाँ (स्नेपमेलन) की फसल में खाद व उर्वरक का प्रयोग नहीं करते, लेकिन अच्छी पैदावार के लिए खेत की तैयारी के समय प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद या चार-पांच ट्रेक्टर ट्राली भेड़-बकरी की खाद मिलावें। इसके अतिरिक्त, 80 किलो नत्रजन, 40 किलो फास्फोरस एवं 40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर खेत में देना चाहिए। एक तिहाई नत्रजन की मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मांत्रा बुवाई से पूर्व कुण्डों या नालियों में देनी चाहिए जिससे उर्वरकों का पूरा उपयोग हो सके। इन तत्वों की आपूर्ती के लिए 80 किलो डाई अमोनियम फास्फेड (डी.ए.पी.), 100 किलो अमोनियम सल्फेट तथा 80 किलो म्यूरेट आॅफ पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा बुवाई के 25 तथा 40 दिन बाद खड़ी फसल में देना चाहिए। इसके लिये 50 किलो यूरिया 25 दिन बाद (फूल आने के समय) तथा 50 किलो यूरिया 40 दिन बाद (फल आने के समय) देते हैं। यूरिया का भुरकाव करते समय ध्यान रखें कि खेत में पर्याप्त नमी हो। बारानी फसलों में यूरिया का भूरकाव वर्षा वाले दिन करना उत्तम रहता है। नत्रजन की आपूर्ति 2 प्रतिशत यूरिया का घोल बनाकर फसल पर छिडकने से भी जाती है। इसके लिये 500-700 लीटर घोल (20 ग्राम यूरिया प्रति लीटर पानी) एक हेक्टेयर में पर्याप्त रहता है।
Question 27 : काकडियाँ (स्नेपमेलन) के अधिक उत्पादन के लिए किन किन बातो का ध्यान रखना चाहिए ?
Answer here, काकडियां के अच्छे उत्पादन के लिए खेत की उचित तैयारी करे। खेत मे 200-250 क्विंटल प्रति हैक्टयर के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद एवं उचित मात्रा में उर्वरको का प्रयोग करना चाहिए। उन्नत किस्मो के बीज खरीद कर उन्हे उपचारित करके ही बोयें। बुवाई सही समय तथा उचित विधि से ही करना चाहिए। शुष्क क्षेत्रों में कम से कम जीवनदायी सिंचाई की तो व्यवस्था रखनी चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई करनी चाहिए। समय समय पर निराई-गुडाई करते रहना चाहिए तथा किडे व बीमारियों को नियन्त्रण करने के लिए उचित दवाईयो की व्यवस्था रखनी चाहिए। सही समय पर फलों की तुड़ाई, भण्डारण एवं विपणन करना चाहिए। काकडियां व अन्य किसी भी फसल के अच्छे उत्पादन के लिए किसी भी सरकारी अनुसंधान केन्द्र से सम्पर्क बनाये रखे और सम्बन्धित फसल की आधुनिक तकनिकीयों के बारे मे वैज्ञानिको से तकनीकी सलाह व जानकारी लेते रहे।
Question 28 : तेज हवाओं से हमारे खेत की मिट्टी कट-कट कर उड जाती है। इसे रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए।
Answer here, तेज हवाओं से खेत की मिट्टी के कटाव व उडनें की प्रक्रिया पर नियंत्रण करने के लिए फसल चक्र में हरी खाद वाली फसलें उगानी चाहिए। भूमि को नग्न या परती (थ्ंससवू) कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मिट्टी में सड़ी गोबर खाद एवम् केंचुआ खाद को अधिक से अधिक मिलाना चाहिए । गौ-पशु, ऊँट, भेड़-बकरियों की खुली चराई पर रोक लगानी चाहिए। फसल चक्र में दाल वाली फसलें व घासों, जमीन पर फैलने वाली बेल प्रकृति की फसलों को शामिल करना चाहिए।
वायु की गति को कम करने के लिए जिस दिशा में हवाएं चलती हैं उनके समकोण (विपरीत दिशा) में वृक्षों और झाड़ियों की सुनियोजित पट्टियाँ लगानी चाहिए। कम-से-कम पट्टियों की लम्बाई वृक्षों की ऊँचाई से 30 गुनी रखनी चाहिए। पट्टियों की आपसी दूरी 3-4 मीटर व पौधों की आपसी दूरी 1-2 मीटर रखी जाती है। इस उद्देष्य के लिए बबूल, शीशम, नीम, पोपलर, जामुन, रमली, बेर, सिरस, अमलताश, बिलायती बबूल आदि का उपयोग किया जा सकता है।
Question 29 : भूमिगत जल के गिरते स्तर की समस्या से कैसे निपटे ?
Answer here, अनियंत्रित एवम् अनियमित जल दोहन के स्थान पर भूमि में जल भरण की विधियों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। मसलन एनीकट, चेकडेम मेड़बंदी, टाँका (अपवाह खेती) खदीन पद्धति, पेड़ो (वृक्षों) के चारों तरफ अर्द्ध चंद्राकार आकृति के गढ्ढे बनाना, तालाब, वृक्षारोपण आदि कम जल की समस्या को दूर करने के अनोखे उपाय हैं। अनावष्यक भू जल का दोहन तथा सिंचाई की व्यवस्था को सुधारकर पानी की बूंद-बूंद को बचाने तथा उसके सदुपयोग पर ध्यान केन्द्रीत करना चाहिए।
Question 30 : क्या बारानी क्षेत्रों में भी शुष्क फल वृक्षों की खेती की जा सकती है। यदि हां, तो बारानी क्षेत्र में फलोत्पादन की तकनीकियों के बारे में कुछ जानकारी दें।
Answer here, गर्म-षुष्क बारानी क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के पौधे लगाने एवम् सिंचाई देने के पहले खेत को यथासंभव समतल कर लेना चाहिए। प्रायः यह देखा गया है कि सामान्य रीति से वृक्षारोपण चैमास के प्रारम्भ में किया जाता है। चतुर्मास के प्रारम्भ में रोपने से आने वाले वृक्षों की जड़ें उपर के स्तर में ही फेली रहती है। चैमास खत्म होते ही उपर का स्तर सूख जाता है और बहुत पानी की आवश्यकता होती है। अतः इस समस्या के निवारण के लिए पौधे जमीन से 30 से.मी. अन्दर लगाने चाहिए। दूसरा चैमासे की शुरूआत के बदले चैमासे के अन्त में एक लीटर पानी से रोपन करना चाहिए। और चोमासे के दरम्यान पानी का संग्रह को बढ़ाने के लिए भूमि का धनीकरण मेड़बन्दी, खेतों को छोटे-छोटे ब्लाॅक में बनाना पलवार बिछाना, पूर्ण रूपेण सड़ी गोबर की खाद, तालाब की गाद एवं केंचुआ खाद को वृक्ष लगाने वाले गढ्ढों से अच्छी मात्रा में डालकर बेर, लसोडा, खेजडी, केर, आदि के उन्नत किस्म वाले फल वृक्षों को बारानी क्षेत्र में लगाकर अच्छा धन लाभ अर्जित किया जा सकता है।
Question 31 : केंचुआ खाद के उत्पादन हेतु उपयोगी पदार्थ, उत्पादन विधि एवमं उसके लाभ बताएँ ?
Answer here, केंचुआ की अच्छी किस्म की खाद बनाने के लिए कचरा यथा पौधों के डंठल, पत्तियाँ, भूसा, गन्ने की खोई, फूल, सब्जियों के छिलके, केले के पत्ते, नारियल के पत्ते, जटा, पशुओं का मल-मूत्र एवम् बायोगैस स्लरी, शहरी कूड़ा-कचरा-सब्जी मणडी का कचरा, रसोई का कूड़ा-कचरा, सडे गले फल-फूल, आदि पदार्थ काम में लिए जा सकते हैं। उपरोक्त सभी पदार्थों को गोबर के साथ मिलाकर देने से केंचुआ खाद शीघ्र एवं अच्छा बनता है।
उत्पादन विधि:-
केंचुआ खाद बनाने के लिए जमीन, छाया, पानी, कार्बनिक पदार्थ, गोबर एवम् केंचुआ की आवश्यकता होती है। जमीन पर किसी भी प्रकार के छायादार स्थान पर पक्का शेड, छपपर या पेेड़ पौधे पर कार्बनिक पदार्थो का ढेर तैयार किया जाता हैं। इस ढेर में कुछ कच्चा गोबर मिला दिया जाता है। इस ढेर पर पानी छिड़कते हैं और ठंडा होने पर इसमें केंचुए छोड़ दिए जाते हैं। 40 प्रतिशत नमी एवम् 8 से 30 डिग्री सेल्सियस (24 डिग्री सर्वोत्तम) ताप बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार समय-समय पर पानी का छिड़काव ढेर पर करते रहना चाहिए। ढेर पर हरसंभव छाया करना (रोशनी से बचाव) अतिआवश्यक है। केंचुए के कार्यक्षेत्र में हवा का प्रवाह बराबर बना रहना चाहिए। केंचुआ अपने भोजन को खाकर ढेर की उपरी सतह पर मल त्याग करता है और यही मल केंचुआ की असली खाद होती है।
केंचुआ खाद के लाभ:-
1. केंचुआ खाद के प्रयोग से सिंचाई के पानी की बचत होती है।
2. केंचुआ खाद मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है।
3. यह खाद मिट्टी में उपस्थित लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं को सक्रिय कर पौधो को
पोषक तत्व उपलब्ध करवाता है।
4. इसके उपयोग से उच्च उत्पादन के साथ साथ उत्तम फल व सब्जियों का
उत्पादन भी संभव है।
5. इस खाद में पौधे के लिए आवष्यक सुक्षम पोषक तत्वों एवं हारमोन्स की मात्रा
भरपूर होती है।
6. केंचुये की खाद से मिट्टी में पानी सोखने, वायु संचार बढ़ने, भौतिक व रसायन क्रियाओं के सुधारने, पी.एच. के सुधारने में बहुत ही मददगार होती है और मिट्टी में मौजूदा अप्राप्त पोषक तत्वों (फास्फोरष, पोटाष, आदि) को प्राप्त अवस्था में उपलब्ध करवाता है।
Question 32 : पिछले कुछ वर्षों से जगह जगह खेजड़ी के वृक्ष सूखते जा रहे हैं। इसका क्या कारण है ?
Answer here, खेजड़ी के वृक्ष सूखने के कई कारण हैं। पहला कारण-वर्षा का कम होना, भू-जल स्तर का गिरना और कृषि-मषीनीकरण का बढ़ना। दूसरा कारण-खेजड़ी जड़ छेदक कीड़े एवं दीमक का प्रकोप। तीसरा कारण-कवक (फफंूदी) संक्रमण, आदि।
वर्षा कम होने तथा भू जल स्तर में आई गिरावट के कारण खेजड़ी की जड़ों के लिए पानीे कम होता ही जा रहा है और जड़ क्षेत्र का तापक्रम बढ़ता जा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में जड़ें कमजोर होती जा रही हैं और उनकी रोगरोधी क्षमता भी घटती जा रही है जिससे जड़ों पर कई तरह की कवक (फफंूदी) व कीट आक्रमण कर देते हैं। बढ़ते कृषि मषीनीकरण के कारण भी खेजड़ी की जड़ों की प्राकृतिक व्यवस्था को क्षति पहँुचती है जो खेजड़ी के सूखने तथा बीमारियों केा फैलाने में सहायक का कार्य करता है।
खेजड़ी के बड़े वृक्षों का सूखने का जो प्रत्यक्ष कारण जो सामने आए हैं उनमें से प्रमुख कारण हैं - खेजड़ी जड़ छेदक कीट का प्रकोप एवं कवक (फफंूदी) का संक्रमण।
खेजड़ी जड़ छेदक कीट जिसका वैज्ञानिक नाम है श्सेलोस्टर्ना स्काब्रेटोर (कोलियोप्टेरा सिरेम्बाइसिडी)श् खेजड़ी वृक्ष का सूखने का प्रमुख कारण है। इस कीट की लटें खेजड़ी की कमजोर जड़ों की छाल में अन्दर घुस जाती है और जड़ों को खाती हुई उनमें आड़ी-तिरछी सुरंग बनाती है तथा जड़ों के अन्दर घुसती जाती है। अन्दर ही अन्दर जड़ो को खाती रहती है। जब ये लटें बड़ी हो जाती हैं तो वे मुख्य जड़ो को खाने लगती हैं और उनमें भी सुरंग बना डालती हैं। फिर धीरे धीरे जड़ें खोखली होने से पेड़ की जड़ो का संवहन तंत्र टूटने लगता है। धीरे धीरे ये लटें जड़ों के संवहन तंत्र को खाकर नष्ट कर देती हैं जिससे पौधेां में भोजन पानी का आवागमन बंद हो जाता है और पौधा पूर्णरूप से सूख जाता है। कई बार तो ये कीट सुरंग बनाकर पेड़ के मुख्य वृंत में भी सुरंग बना कर काफी ऊँचाई तक चले जाते हैं और सम्पूर्ण पेड़ को जड़ सहित खोखला कर देते हैं। पेड़ की जड़ों को खोदने पर पता चला है कि इस जड़ छेदक कीट की लटें 3 से 15 मीटर तक की गहराई तक जमीन एवं जड़ों में आराम से रह सकती हैं। जड़ छेदक मादा कीट जमीन में अण्डा देती हैं जिनसे अनुकूल परिस्थितियों में छोटे छोटे लार्वे निकलते हैं और आगे चलकर लट के रूप में खेजड़ी की जड़ों पर आक्रमण कर देते हैं। ये लटें बाद में प्रौढ़ मादा में बदल जाती हैं और फिर जमीन व खेजड़ी के पेड़ों की जड़ों में अण्डे देती हैं जिनसे समय आने पर लार्वा निकलकर लट में बदल जाते हैं। ये क्रम लगातार चलता रहता है।
खेजड़ी के वृक्ष सूखने का दूसरा प्रमुख कारण है, कवकों (फफूंदों) का खेजड़ी की जड़ों पर संक्रमण। षोध कार्यों से पता चला है कि खेजड़ी की जड़ों पर आक्रमण करने वाली कवकों की प्रमुख प्रजातियाँ हैं, गैनोडर्मा/गाईनोडर्मा, फ्यूजेरियम, रहीजक्टोनिया, आदि। गैनोडर्मा कवक को देषी भाषा में विषखोपरा या भंफोड़ा भी कहते हैं। सितम्बर-नवम्बर माह मेें खेजड़ी, की जड़ों एवं तने के बीच में से छतरीनुमा आकार के भुफोड़ा बनते दिखाई देते हैं जो गैनोडर्मा कवक के संक्रमण के कारण होते है। ये भंफोडे़ ष्षुरूआत में मुलायम होते हैं परन्तु बाद में कठोर एवं चैकलेट रंग के हो जाते हैं। इस कवक के संक्रमण के कारण पौधों के संवहनतंत्र के समान कार्यों में खराबी होने लगती है और अगले अगस्त सितम्बर के महीने में पेड़ की पŸिायाँ पीली पड़ने लगती हैं और बाद में धीरे धीरे पूरा पेड़ सूख जाता है।
दीमक का आक्रमण भी खेजड़ी के पौधों को सुखाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
Question 33 : खेजड़ी के बडे़ वृक्षों को सूखने से बचाने के लिए क्या क्या उपाय किये जा सकते हैं ?
Answer here, (पद्ध खेजड़ी के वृक्षेां को सूखने की बीमारी से बचाने के जो उपाय किसान भाई कर सकते हैं वे यह हैं कि वर्षा की बूंद बूंद पानी को अपने खेत में संचय करें और खेजड़ी की जड़ों में थांवला (अंगूठीनुमा खाई) बनाकर पानी का संग्रहण करें। भू - जल को सिंचाई के रूप में काम लेते समय उसका भी बड़ी सर्तकता के साथ सदुपयोग करें। हर सम्भव खेजड़ी की जड़ों में नमी की मात्रा को बनाए रखें। गर्मी केे दिनों में खेजड़ी के पेड़ के चारों तरफ बनाए हुए थंावलों को घास फूस के बिछावन से ढक देना चाहिए ताकि मृदा जल का वाष्पीकरण न हो और जल लम्बे समय तक पेड़ों को मिलता रहे।
(पपद्ध जड़ छेदक का नियंत्रण: खेजड़ी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाने वाला कारक है, जड़ छेदक कीट। इसकी रोकथाम के लिए वर्षाकालीन दिनों में स्वस्थ्य पेड़ों पर एण्डोसल्फान 35 ई.सी. 4-7 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें ताकि जड़ छेदक कीट के प्रौढ़ भृंगें मर जाएं। जड़ों में उपस्थित कीट की लटों, भृंगों, आदि को मारने के लिए पेड़ की जड़ों में क्लोरोपाइरीफाॅस 20 ई. सी. (15-20 मि.ली. प्रति पेड़ के हिसाब से) व कार्बनण्डजिम 20 ग्राम के साथ काॅपर आक्सीक्लोराइड 40-45 ग्राम प्रति पेड़ के हिसाब से पानी में घोलकर पेड़ के चारों ओर डालें ताकि तने तथा जड़ों मे उपस्थित कीट, लटें व भृंगे मर जावें। वर्षाकाल में जड़ छेदक कीट के प्रौढ़ भृंगों को प्रकाषपाष या खेतों में आग जलाकर प्रकाष की तरफ आकर्षित करक, नष्ट कर दें। सूखे एवं संक्रमित पेड़ों को तुरन्त उखाड़कर जला दें ताकि उनमें उपस्थित कीट की लटें एवं कवक जलकर नष्ट हो जावें।
(पपपद्ध कवक नियन्त्रण: कवक (फफंूदी) से होने वाले संक्रमण/बीमारियों से खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए 20 ग्राम बाॅवस्टिन तथा 40 ग्राम ब्लाइटोक्स को 20 लीटर पानी में घोलकर खेजड़ी के पेड़ की जड़ों में डेªन्चीग करें। इस प्रक्रिया को हर 15 दिन बाद 2-3 बार दोहरावें। इस तरह कवक के संक्रमण को काफी हद तक रोका जा सकता है। यदि हम बीजों से खेजड़़ी के पौधे तैयार करते हैं तो उनको भी बाॅवस्टिन या अन्य किसी भी कवकनाषी दवाईयों से उपचारित करके ही बोयें। संक्रमित खेजड़ी को उखाड़ कर जला दें। साथ में ही संक्रमित खेत की जड़ों/तनों पर बने भंफोडो को भी एकत्रित करके जला दें ताकि कवक का संक्रमण दूसरी स्वस्थ्य खेजड़ियों पर न हो पायें।
(पअद्ध दीमक पर नियन्त्रण: खेजड़ी वृक्ष पर प्रकोप होने पर दीमक का भी वे सूख जाते हैं। दीमक के प्रकोप को रोकने के लिए खेजड़ी के तने पर एक -दो फुट की ऊँचाई तक क्लोरोपाईरिफॅास तथा चूने का घोल बनाकर लेप कर दें। भूमिगत दीमक के नियन्त्रण के लिए पेड़ के तनों व जड़ों के पास खाई खोदकर उसमें क्लोरोपाईरिफॅास या फोरेट या एन्डोसल्फान 4 प्रतिषत चूर्ण को मिट्टी के साथ मिलाकर खाई में भर दें जिससे कि दीमक या उसकी लटेें मर जावें या दोबारा पैदा नहीं हो पावे।
(अद्ध खेजड़ी के वृक्ष की उचित छंगाई: खेजड़ी के वृक्ष की छंगाई करते समय 4-5 बड़ी षाखाओं को सुरक्षित छोड़ देना चाहिए अर्थात उन्हें छँागना (काटना) नहीं चाहिए या एक दो वर्ष के अन्तराल पर ही पेड़ की छँगाई करनी चाहिए या वृक्ष के निचले दो तिहाई भाग की छँगाई करनी चाहिए और ऊपर के एक तिहाई भाग को सुरक्षित छोड़ देना चाहिए ताकी वृक्ष प्रकाषसंष्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन नियमित रूप से बनाता रहे।
Question 34 : वर्तमान में खेजडी वृक्ष की सबसे उत्तम और षीघ्र पौध बनाने की प्रवर्धन विधि कौनसी है ?
Answer here, केन्द्रीय षुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर द्वारा हाल ही में विकसित की गई वानस्पतिक प्रवर्धन विधि श् पेच कलिकायन तकनीकीश् खेजड़ी वृक्ष के षीघ्र एवं उत्तम प्रवर्धन के लिए सबसे अच्छी विधि मानी गई है।
Question 35 : खेजड़ी में वानस्पतिक प्रवर्धन के क्या फायदे हैं ?
Answer here, इस विधि से तैयार किए पौधे 3-4 वर्ष के बाद ही उत्तम गुणवत्ता वाली सांगरी देने लगते हैं। ये बौनी किस्म के पौधे होते हैं जिसके कारण कम क्षेत्र में ही खेजड़ी के अधिक पौधेंा का बगीचा तैयार किया जा सकता है। वानस्पतिक प्रवर्धन से तैयार प्राप्त की जा सकती है। इस तरह के पौधों को अपनी मनपसंद का आकार/आकृति दी जा सकती है। इनकी कटाई छंटाई, सांगरियों की तुड़ाई, आदि में बहुत आसानी रहती है।
Question 36 : खेजड़ी उत्पादन की आधुनिक तकनीकियों के बारे में और अधिक जानकारी एवं प्रषिक्षण कहाँ से प्राप्त किया जा सकता है ?
Answer here, खेजड़ी उत्पादन की आधुनिक तकनीकियों के बारे में और अधिक जानकारी एवं प्रषिक्षण के लिए किसान भाई, बीकानेर में केन्द्रीय षुष्क बागवानी संस्थान से सम्पर्क कर सकते हैं। ये संस्थान गंगानगर रोड़, बीछवाल बीकानेर में स्थित है।
Question 37 : खेजड़ी की नई किस्म ष्थार षोभाष् के पौधे कहाँ से और कब प्राप्त किए जा सकते हैं ?
Answer here, खेजड़ी की नई किस्म ष्थार षोभाष् केन्द्रीय षुष्क बागवानी संस्थान, गंगानगर रोड़, बीछवाल, बीकानेर द्वारा विकसित की गई है और इसके पौधे भी इसी संस्थान में सरकारी दर पर जुलाई-अगस्त के महीने में प्राप्त किये जा सकते हैं।